Thursday, November 1, 2007

प्रभु की खोज

यूं ही एक दिन निकला मैं अनजान सा,
खोज में मेरे भगवान की,

काशी के तट पर मिले शम्भुनाथ जी,
देख कर आवरण उनका,
बंधी कुछ उम्मीद सी,
पर हम निकले ऐसे ही नाकारा,
पूरी न कर पाए छोटी सी,
पांच सौ एक की उनकी फ़ीस भी |

किया फिर हमने रुख काबा का,
पर यहाँ भी हताशा आई हाथ,
अल्लाह इश्वर के फर्क का ,
दे न पाए हम कोई जवाब |
गए थे हम एक मजार में,
बाहर आये बिना मालो असबाब|

ऐसी हे उधेड़्बून्द में फिर,
कदम बढ़े येशु के दरबार,
पर वहाँ भी फिर पूछा गया,
कौन हूँ मैं काफिर,
प्रोटेस्टेंट के कैथोलिक मेरा सरमाया,
अनपढ़ गंवार मैं फिर भाग आया|

घिरे इन सवालों से खुद की पहचान के
अचानक मिली फिर चारों ओर भीड़,
कोई आवाज़ कहती आओ छेड़ो जेहाद,
हम देंगे तुम्हारे हर सवाल का जवाब |
कोई कहता मारो तुम दो गद्दार राम सेतु के नाम,
हम देंगे तुम्हे असली पहचान|
कोई कहता बाक़ी सब हैं बस बदनाम,
एक मेरे ही प्रभु को दो सम्मान|
कहीं से फिर चली तलवार, सामने दरबार,
खून के धार के बीच चीत्कार |

इतना काफी था दोस्तों मेरे घर लौटने को,
छोड़ उस भगवान को जो बाहर बिक चुका था,
खो चुकी थी कबीर के वाणी,
शायद रहीम भी हंस रहे थे,
काबा हो या काशी,
इस हम्माम में सब नंगे थे |
मेरे राम बस मेरे साथ थे,
न किस सेतु न किसी मस्जिद के मोहताज थे,
मैं खुश हूँ अपनी नासमझी पर,
कम से कम ज़िंदगी तो मेरे साथ है|

यह प्रयास मेरा, समर्पित है उन सभी सम्मान्नीय प्रबुद्ध लोगों को जिन्होंने कभी न कभी मुझे समझाने की कोशिश की के प्रभु कौन हैं और अल्लाह कौन | जिन्होंने कभी मंदिर के नाम तो कभी जेहाद के नाम शायद ज़िंदगी को कम आँका है और जिनके लिए सड़क पर दो वक़्त की रोटी को जूझते लोगों से ज्यादा ज़रूरी आलीशान इमारतों बैठे बुत या कुछ पन्ने हैं | ऐसे सभी लोगों का मैं मुजरिम हूँ और क्षमाप्रार्थी भी जो मैं उनके जैसा न हो सका |

1 comment:

Puneet Bindlish said...

बहुत बढिया! खोज जारी है ?