Saturday, November 5, 2016

शेख़चिल्ली

चिल्लम चिल्ली, चिल्लम चिल्ली,
हर शाख़ पर बैठा शेखचिल्ली,
बौराये बैठे कालिदास भी।
शाख तो छीनी, पर कलम भी ले ली,
अब किसे कहें शकुंतला, और किसे सुनाएँ मेघदूत,
सुनने वालों की सभा में,
हर कुर्सी कौओं ने ले ली।
 
धृतराष्ट्र के संजय भाग गए,
प्रेमचंद के हीरा मोती हँसते हैं ,
गाँधी जी के बन्दर भी ,
दिल्ली की हवा में खाँसते, दांत दिखाते हैं । 
बाकी दलाल स्ट्रीट के गुणीजन ,
दुनिया हिल्ले री कि ट्रम्प करी ,
इस असमंजस में घबराते हैँ । 
 
बम बम भोले से भोले भाग गए,
फिर क्या पंडित क्या मौलवी,
लंगोट उठा सब दौड़े जाते हैं,
हम अपने वाइल्ड के दानव के साथ,
उस वृक्ष पर खेलने जाते हैं,
फिर फूल खिलें या फल शायद,
तब तक हम आपके शेख़चिल्ली बन जाते हैं ।
 

 

Tuesday, April 12, 2016

ज़िन्दगी की चाय

ज़िंदगी भी क्या यूँ ही मुझ से मिली ,


कभी मानसून की बारिश में ,
एक टपरी पर कटिंग के नर्म सुकून की तरह,


तो कभी सिरहाने पर,
किसी के हाथ में डगमगाते चाय के प्याले की तरह,
जब उँगलियाँ गीले बालों को  झटका रही हों,


कभी छलक जाए अगर हाथ से तो,
पैंट पर दिखते ज़िद्दी दाग की तरह,


कभी फ़ीकी , कभी मीठी 
या फिर छलनी से निकाल कर फिंकी ,
इस्तेमाल की हुई पत्ती की तरह,


ज़िन्दगी यूँ ही मिली मुझ से चाय की तरह।