ज़िंदगी भी क्या यूँ ही मुझ से मिली ,
कभी मानसून की बारिश में ,
एक टपरी पर कटिंग के नर्म सुकून की तरह,
तो कभी सिरहाने पर,
किसी के हाथ में डगमगाते चाय के प्याले की तरह,
जब उँगलियाँ गीले बालों को झटका रही हों,
कभी छलक जाए अगर हाथ से तो,
पैंट पर दिखते ज़िद्दी दाग की तरह,
कभी फ़ीकी , कभी मीठी
या फिर छलनी से निकाल कर फिंकी ,
इस्तेमाल की हुई पत्ती की तरह,
ज़िन्दगी यूँ ही मिली मुझ से चाय की तरह।
कभी मानसून की बारिश में ,
एक टपरी पर कटिंग के नर्म सुकून की तरह,
तो कभी सिरहाने पर,
किसी के हाथ में डगमगाते चाय के प्याले की तरह,
जब उँगलियाँ गीले बालों को झटका रही हों,
कभी छलक जाए अगर हाथ से तो,
पैंट पर दिखते ज़िद्दी दाग की तरह,
कभी फ़ीकी , कभी मीठी
या फिर छलनी से निकाल कर फिंकी ,
इस्तेमाल की हुई पत्ती की तरह,
ज़िन्दगी यूँ ही मिली मुझ से चाय की तरह।
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