Thursday, October 8, 2015

जुगनू

काँच के महल टूटें,
तो उन्हें छोड़ना अच्छा है ।
फिर से जोड़ने की कोशिश में,
चुभन के साथ लहू निकलता है।
किनारे के घरौंदे सुहाने हैं,
लहरों से खेलना अच्छा लगता है।
टूट भी जाएँ अगर,
हर बार एक नया मकान बनता है।

संगमर्मर चाहे ताज महल का हो ,
धुप में तपिश, जाड़े में गलन ही देता है।
सावन भी दस्तक दे अगर,
फिसलने का डर भी रहता है।
घास के तिनके कितने अच्छे हैं,
नंगे पाँव भी ओस की नरमी देते हैं ।
दौड़ते हुए गिर भी जाऊं अगर,
छिले घुटनों को मिट्टी  की खुशबू में  लपेट देते हैं ।

तो चलो फिर,
नीले आसमान को छत बना कर ,
ज़मीन के पलंग पर धूप की चादर लपेट लेते हैं ।
अँधेरा भी हो जाए अगर ,
हर लम्हे को जुगनू बना कर,
कुछ जुगनूओं की टॉर्च बना लेते हैं ।
टूटे हुए शब्दों की सही ,
अपनी दास्ताँ  तुम्हे सुना देते हैं ।

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