Thursday, August 2, 2007

उत्तरों का सन्नाटा

भूख लगती थी तब भी मुझको,
जब दो वक़्त की रोटी से पेट भरता था,
भूख आज भी है मुझको,
जब घी के पराँठे और पनीर,
खा कर भी पेट खाली रहता है

प्यास तब भी थी मुझको,
जो घड़े के चुल्लू भर पानी से बुझती थी,
गला पर अब पर्यंत सूखा है मेरा,
जब जाम से जाम टकराते हैं,
मयखाने दर मयखाने भटकते

विचरता था स्वच्छंद तब भी मैं,
जब सपने अपने थे और आसमान भी अपना
उड़ता हूँ आज भी वहीं,
बस किसी हवाई जहाज़ की सीट
के बोर्डिंग पास पर नाम है मेरा

धुल जाता था तब चेहरा,
बारिश की चंद बूंदों मॆं,
आज भी मैला हो आता है,
कालिख मगर आज रह जाती है,
साबुन की परतों मॆं रगड़ते रगड़ते

जिन्दगी दौड़ती थी तब भी,
जब मैं भाग कर बस मॆं,
उसे पकड़ लेता था
आज वो भागती है डिवाइडर के उस तरफ,
और मैं बस उसे मौन देखता हूँ कार मॆं

आईने मॆं दिखती थी कभी एक छवि,
आज सिर्फ एक छाया है,
कौन हूँ मैं, किसका यहाँ घर है,
मोहपाशों की एक माया है,
प्रश्नों के इस जंगल मॆं, उत्तरों का सन्नाटा है

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