Monday, November 7, 2011

काँच टूटने की आवाज़

आज कल काँच जब टूटता है,
तो आवाज़ नहीं होती |
इतनी भीड़ है मेरे चारों ओर,
कि मुझे अपनी ही आवाज़ ,
सुनाई नहीं देती |

टूटे काँच पर चलो भी,
तो वह चुभता नहीं |
इतने जूते हैं मेरे पास कि,
कितने तिनकों को मैंने रौंदा,
उसका हिसाब ही नहीं |

काँच से अगर कट भी जाए ,
तो लहू दिखता नहीं है|
मयखाने के गिलास से देखती ,
मेरी आँखों को,
लहू का रंग ही पता नहीं है |

अभी कल की बात है शायद ,
नंगे पाँव , गीली घास पर दौड़ कर,
काँटों से बेख़ौफ़ मेरी उंगलियाँ ,
कुछ फूल ले आती थी|
और मैं रक्त की बूंदों को चख कर,
उन्हें काँच के गुलदस्तों में सजा देता था|
और काँच अगर चटख भी जाए ,
तो आँखें नम हो आती थी ,
मैं डर जाता था| 


फूल आज भी हैं,
प्लास्टिक के , एक बुके में सजे,
सड़क के उस पार, एक दुकान से ,
चंद सौ रुपये में खरीदे |
गुलदस्ते में सजाता भी हूँ|
मगर गुलदस्ता टूटे भी तो ,
कालीन पर आवाज़ नहीं होती|
आज कल काँच टूटने की आवाज़ ,
सुनाई ही नहीं देती | 


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