Monday, December 7, 2009

भूख

भूख,
तू ज़िन्दगी की लंगोटिया यार,
जो सिर्फ मौत के साथ ख़त्म होती है|
भूख,
तू एक पत्थर की लकीर,
जो घिस घिस कर हाथों में समा जाती है|

भूख,
तू अगर सिर्फ पैसे की होती,
तो चंद टकसालें लूट कर,
शायद मैं शांत हो जाता|

भूख,
तू अगर सिर्फ हवस की होती,
तो कुछ कोठों पर गजरे बाँध,
तेरी खुशबू में खो जाता|

भूख,
तू अगर सिर्फ हमसफ़र की होती,
तो कहीं अग्नि के फेरे ले कर,
सात जन्मों तक तुझे भुला देता|

भूख,
तू अगर सिर्फ ज़िन्दगी की होती,
तो कहीं मौत को लगे लगा,
तुझे यूँ ही हरा देता|

भूख,
क्या अच्छा होता गर तू बिकाऊ होती,
कुछ सिक्कों में तोल,
तुझे बीच चौराहे पर बेच आता|

भूख,
काश कि तू दुआओं से मिटती ,
किसी, दरगाह में सर झुका कर,
या किसी मंदिर के घंटी बजा,
तुझे वहीँ छोड़ आता|

मगर भूख,
तू भी तो साली अय्यार है,
रूप बदल बदल कर दिखती,
यारों की यार है|
कभी धूप में मिट जाती है,
तो कभी छाया में कुलबुलाती है|
कभी सूखी आँखों में जगती है,
तो कभी आँसूओं में बह जाती है|
कितना भी मिटा लूँ मैं मगर,
मिट बिल्कुल नहीं पाती है|

1 comment:

Puneet Bindlish said...

बहुत बढिया! खोज जारी है ?