Tuesday, July 10, 2007

खिड़की

आज फिर खिड़की बंद है,
हवा में एक ठहराव है,
रुके हुये से पलों में,
शायद जिन्दगी का एक और पड़ाव है,
भीतर उमस भरी गर्मी,
पलंग पर दो शरीरों का पसीना,
गीली चादरों में लिपटे,
कुछ सूखे से एहसास हैं,

चन्द दिनों पहले ही यूं मिले थे,
बारिशों की पदचाप में,
आज भी हैं बादल मगर,
बिन बूंदों के घिरी,
सिर्फ एक घटा है,
कल तक जो कलरव था,
दिलों के स्पंदन का,
आज बस अभूज खामोशी,
का अंतर्नाद है,

किस मोड से मुड़े थे हम,
कुछ पल जीने को,
स्वच्छंद ,
आज सड़क की जगह,
सिर्फ बियाबान है,

कहॉ भटके खबर नहीं,
क्यों खो गए जानते नहीं ,
हर सवाल पर होंठ,
लाजवाब हैं,
चूमा था सोच कर जिसे,जिन्दगी,
इन होंठों ने,
वोह तो आज भी तार तार है,
साजों का संगीत विलुप्त,
शब्दों की लड़ी भी बेतार है,

क्यों कर फिर भी बढते हैं,
क्यों किसी का इंतज़ार है,
पाने की है चाह अभी भी अमिट ,
देखते अभी भी हम किसी की राह हैं,
कोई खोले आ कर यह खिड़की,
शायद, अब भी कुछ,
ऐसे आसार हैं,
खिड़की है उत्श्रन्खाल,
हवा भी शायद बेताब है