Wednesday, May 9, 2007

Bebasee kaa shahar

बेदम बदहवास ज़िन्दगियों का शहर,
कुछ बेबस शरीर,
सुबह चलते हैं दो पैरों पर,
शाम तक कुछ रेंगते, कुछ घिसट ते,
दोहरी क़मर पर कुछ यूं संभलते ही
कुछ तंग कपड़ों में,
तो कुछ तंगहाली में,
हैं तो सब नंगे ही
किसी को एक और जाम की प्यास,
तो किसी को पहली बूँद की आस,
हैं तो सब प्यासे ही
किसी का हो आखरी जवाब,
तो किसी का पहला प्रश्न,
हैं तो सब प्रश्नचिंह ही
कोई सूरज की पहली किरण पर,
तो कोई सूरज की आखरी रौशनी में,
सोये हुये तो अनगिनत हैं ही
कहीं टाट के पैबंद,
तो कहीं मखमल के परदे,
गंदिगी तो सब जगह छुपी है ही
कोई एक पैर पर ट्रेन में,
तो कोई एक सीट पर बस में,
गाय बैल के तरह ठुसे तो सब हैं ही
हैरान हूँ में, परेशां भी,
चाहते क्या हैं सब,
ये जानते नहीं
में कौन सा अलबेला हूँ,
भीड़ में खोया तो हूँ मैं भी

1 comment:

Anonymous said...

Neat!
what's that one trigger that made you lamenting the futility of human struggle and existence?
n wont you be glad that you at least realised this n probing self or posing a question to self, far better than most of us who trudge on cluelessly? no less a wonder, man seeks woman, woman fumbles for man so as to get a break from this....of course, after a while the breaks too get predictable...J